Category: स्तंभ

आधे रास्ते (सातवीं क़िस्त)

जब मेरे मैट्रिक होने की खबर आयी तो पिताजी की आंखों में आंसू आ गये. मुझे छाती से लगाते हुए उन्होंने कहा- “कनु, मेरी मैट्रिक पास होने की अभिलाषा अधूरी रह गयी थी. तूने आज उसे पूरा कर दिया. मुझसे…

आधे रास्ते (छठवीं क़िस्त)

इन्हीं दिनों मैंने डय़ूमा के  ‘थ्री मस्केटीयर्स’ आदि उपन्यास पढ़ने शुरू किये और मेरी आंखों के आगे नयी सृष्टि निर्मित होने लगी. सांस लेने की परवाह किये बिना मैं इन उपन्यासों में खो गया. दार्तान्य, अरथोस मिलाडी, व्राजिलोन और दला…

आधे रास्ते (पांचवीं क़िस्त)

हम नासिक से लौटे और पिताजी की बदली धंधूके हुई. वहां किसी के ऊपर रिश्वत लेने का आरोप था. इसलिए, उसकी जांच-पड़ताल के लिए उनकी नियुक्ति हुई और मां, बहनें तथा मैं भड़ौंच रहे. इस समय एक छोटा-सा पिल्ला मेरा…

आधे रास्ते (चौथी क़िस्त)

1913 तक मैं कनुभाई था– मां-बाप का, नाते-रिश्तेदारों का, जाति का, गांव में मुझे जो पहचानते थे उनका, मास्टरों का, बड़ौदा कालेज के सहपठियों तथा प्रोफेसरों का. कितनी ही बार घर के लाड में मुझे ‘भाई’ कहते और माताजी तथा…

आधे रास्ते (तीसरी क़िस्त)

जब मेरा जन्म हुआ तो मुझे बड़ा लाड़-प्यार मिला. छह लड़कियों के बाद मैं ही एक लड़का था. सबको प्रतीक्षा कराते-कराते मैंने थका डाला था. मेरे आते ही पिताजी तहसीलदार हुए. फिर जब मैं छोटा था तब मैंने सबके मन…